Tuesday, 30 August 2011

SAHYOGI BHAVNA

सहयोगी भावना
                नारी को शिक्षा के प्रति जागरूक करने का एक नाज़ुक सा अहसास 
सहयोगी कर्त्तव्य
                 अशिक्षा के अंधेरों से लड़ते हुए, महिला समाज को ज्योतिर्गमय करने का पुनीत संकल्प
शिक्षित नारी
                          आगामी  पीढ़ी को  भाषा और वाणी, सोंच और  समझ तथा सकारात्मक क़दम उठाने का  संबल               प्रदान करती है
आईए सहयोगी भावना उत्पन्न करने में अपनी भागीदारी निभाएं 
           

Thursday, 11 August 2011

SAHYOGI FOUNDATION KI STHAPNA KI SONCH KE LIYE

सहयोगी सन्स्थान की सोंच और उसे नया फलक देने के लिए मै मेहदी अब्बास रिज़वी (बलरामपुर) और तनवीर सुल्तान रिज़वी (लखनऊ) का तहे दिल से आभारी हूँ. संस्था के हर तरह के कार्य के लिए मेरा सारा समय संस्था को समर्पित रहेगा. नारी जाति को मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास अनूठा और सराहने योग्य है.

Friday, 5 August 2011

EK GAON KI KAHANI

कितना बढ़िया था वह गाँव 
                घर के बाहर बाग बगीचा आम पपीता केला था 
                घारी में दो बैल बंधे थे लकड़ी का एक ठेला था
                काम काज करने वालों से जुडी सी रिश्तेदारी थी
                अंगनाई के कोने कोने सब्जी वाली क्यारी थी
चटक धुप की गर्मी हरती पीपल नीम की ठंडी छाँव
कितना बढ़िया था वह गाँव

                छोटा सा स्कूल था अपना तख्ती दुद्धी बस्ता था
                खेतो में बिखरी हरियाली पगडण्डी सा रास्ता था
                चाहे हो त्यौहार किसी का मिलके सभी मनाते थे
                मस्त कलंदर जुम्मन काका झूमके फगुआ गाते थे
आज सभी त्यौहार वही हैं लोगों में है क्यों अलगाव
कितना बढ़िया था वह गाँव

                 सावन के झूलों की मस्ती रिमझिम मस्त महीना था
                 हथिया की सीनाजोरी से मुश्किल सब का जीना था
                 याद है हम को दादा जी के पास  पुरानी बग्घी थी
                  चांदनी रात में हमको भाति खो खो और कबड्डी थी
सभी दिखाते खेल भावना चोटें लगती ठांव कुठाओं
कितना बढ़िया था वह गाँव


                  इक आँगन इक छाजन ही परिवार की होती परिभाषा 
                  भरे पेट तन ढका रहे बस इतनी रहती अभिलाषा
                  भाई भतीजे सगे से बढकर तब तो जाने जाते थे 
                  जो कुछ मिलता घर मुखिया के हाथ पे रक्खे जाते थे
बदल गई सारी परिभाषा "अपनी नदिया अपनी नाव" 
कितना बढ़िया था वह गाँव


                  गर्मी में घर के बाहर सब खाट बिछा कर सोते थे
                  चौपालों में रात गए तक आल्हा ऊदल होते थे
                  आम के बाग़ों में रातों को आना जाना रहता था
                   मेल मिलाप का अदभुत संगम सब लोंगो में मिलता था
सामाजिक बंधन में बंध  कर सब दिखलाते आदरभाव
कितना बढ़िया था वह गाँव


               बेटी के गुन सुन कर ही सब हो जाया करते थे राज़ी
               रिश्तों की बुनियाद हुआ करती थी होने वाली शादी
               लेन देन की बात का चक्कर वहां कहाँ  पैर चलता था
               अगवानी से विदा घडी तक किसी को कुछ न खलता था
कन्या पक्ष से लड़के वाले रखते थे अच्छा बर्ताव 
कितना बढ़िया था वो गाँव


               सुबह सुबह पक्के कुएं पर पनिहारिन जब आती थीं
                जिस जिस घर में पानी भरतीं सुब का हाल सुनाती थीं
                किसकी चक्की टूट गयी है किसका जनता नया नया
                किसकी ढेंकी लंगड़ी धुन्ग्री किसका टांका कहाँ भिड़ा
किसके नयना पी बिन बरसें किस किस के भारी हैं पौव 
कितना बढ़िया था वह गाँव


                शीत लहर आने के पहले ताल में पक्षी आते थे
                 तरह तरह के रंग बिरंगे जलवे खूब सुहाते थे
                 पनचक्की पर गठरी लेकर गोरी का आना जाना
                 याद ज़रा सी आते ही मून हो जाया करता दीवाना
सूरज ढलते चौपालों में जल उठते थे कई अलाव 
कितना बढ़िया था वह गाँव


                  आज शहर की भीड़ भाड़ में खोज रहा हूँ रोटी पानी
                   माँ के हाथ से दूध मलाई बीते युग की कोई कहानी
                   बेफिक्री के सर पर ऐसा फ़िक्र ने लक्कड़ मारा है
                   मजबूरी के आगे गिरवी अपना दिल बेचारा है
जीवन गाथा और नहीं कुछ यह तो है कागज़ की नाव
कितना बढ़िया था वह गाँव
आज पुनः उस गाँव गया था
गाँव का हर अंदाज़  नया  था 
देखा सोंचा  परखा  जांचा
पर वह पहले  जैसा  न  था
                 
                    मेल मिलाप न पहले जैसा पहले ऐसा रंग न रूप
                    पेंड़ो के बिन धरा का सीन दहकाती रहती थी धूप  
                    ताल पाट कर किसी सेठ ने कोठी नयी बना ली थी
                    उसके लौंडो के हाथों में बोतल और दो नाली थी
ग़ैरों का क्या ज़िक्र करें जब अपने ही देते हों दाँव
कितना बढ़िया था वह गाँव

                    आम के जितने बाग़ वहां थे भठ्ठे वाले लील गए
                    शीशम नीमचमेली जामुन वनटंगियागण छील गए
                    युकिलिप्ट्स के पटरों से क़ब्रे धान्पी जातीं हैं
                    झाडी रहठा के डंडों से मंजिल नापी जाती है
सोंटा लाठी छड़ी बेंत का आसमान पे लटका भाव
कितना बढ़िया था वह गाँव


                     प्रधानो  को चुनते चुनते गाँव का दो दो फाँट किया 
                     एक ने साथ अगर छोड़ा तो दूजे ने फिर साथ दिया                      
                     प्रधानी की कुर्सी अबतो नोट लगा केर मिलती है
                     ग्राम्य विकास के धन से उनके घर की रोटी चलती है
कितना अच्छा बिजनेस भैया एक छटाक पे बारह पाव
कितना बढ़िया था वोह गाँव


                      शादी से शहनाई ढोलक आतिशबाजी रूठ गयी
                       मंगनी होती धूम धाम से कुछ चूका तो टूट गई 
                       ज्यादा चढ़ा दहेज़ तो समधी फूले नहीं समाते हैं
                       टीवी फ्रिज वो दोपहिया में दुल्हे जी फँस जाते हैं
आजीवन के लिए सुरक्षित कभी न भर पाए जो घाव 
कितना बढ़िया था वोह गाँव


                        गड्ढे ताल तलैया पट कर सड़कें घर आबाद हुए
                        अंजुरी भर बादल रोया तो घर आंगन बर्बाद हुए 
                         घर से निकला गन्दा पानी कुएं में अब जाता है
                        हैण्ड पम्प पैर बांध के मोटर सारा गाँव नहाता है
चौपालें हैं विधवा जैसी लकड़ी बिन क्या जले अलाव
कितना बढ़िया था वोह गाँव


                        त्योहारों की तैयारी में नया सभी अपनाएं फंडा
                         जिस होवे पर्व मानना झुके उसी दिन आधा झंडा
                        शान व शेखी के कारण ही होता है ठनठन गोपाला
                         खांची भर समधी घर भेजो खास न पाए एक निवाला
इस अदा पर खानदान में होता रहता है चिठियाओं
कितना बढ़िया था वोह गाँव


                               
                     



                  




                
                       
                   



                               




                  








Thursday, 4 August 2011

Do Took Kalam

अपने शब्दों को अब विराम न दो
बोल डालो जो तुम को बोलना है
थोड़ी हिम्मत जुटाना है तुमको
अपने होंटों को थोडा खोलना है

बोल डालो जो तुम को बोलना है
खोल डालो जो तुम को खोलना है
अपनी पहचान हो अलग सबसे
सारी दुनिया को तुमको तोलना है

हम तो इंसानियत के पैकर हैं 
आम लोगों से थोडा हटकर हैं
हामिले इल्म कामिले मस्लक
हुस्ने ,एखलाक में भी बढकर हैं

बेवजह हम तो मुस्कराते नहीं  
आजमाए को आजमाते नहीं
हक ओ इमां पे जान तक दे दें
आज़माइश में टूट जाते नहीं

हम हैं सुन्नी रसूले अकरम के
हम है शिया इमामे आज़म के
पन्ज्तन ही हमारे रहबर हैं
सीखा सुब कुछ शहीदे आज़म से

हम तो हक की शमा जलाते हैं
सब को रहे बका दिखाते हैं
अपना आईन सिर्फ कुरा है
लोग क्यों हम से खार खाते हैं

जाओ अल्ला मियां से यह पूंछो 
खाने काबा में क्यों शिगाफ हुवा 
क्यों विलादत अली वहां पे हुई 
किसने सारे बुतों को खाक किया

अव्वलन किसने था पढ़ा कलमा
लोग क्यों सुन के परेशान से थे
किसके हाथों हुआ मुकम्मल ये 
इस हकीकत से क्यों अंजान बने

थे मोहम्मद के क्यों सभी दुश्मन
क्यों बिसातें थीं खिलाफ उनके बिछीं
सारे असहाब अजिन्ना की तरह छूमन्तेर
,एक ही क्यों रहा हर एक मुसीबत की घडी

जानते हो तो फिर बतावो  न
हक की बातों को तुम छिपाओ न
बात क्या है जो तुम को रोकती है
थोडा खुद का ज़ेहन चलाओ न

अच्छा एक बात हम को बतलाओ 
किस तरह कैसे तुम मुसल्मा हुए 
कौन है जिस को मानते हो बड़ा
राज़ हम को भी थोडा मिल जाये

जानते हो रसूले अरबी को
जिनकी हर बात तुमको याद रही
मनकुन्तो मौला व् हज़ा अली मौला
किस वजह इसकी न हदीस रची

लौटते वक़्त आखिरी हज से
हुक्म था आज ही बता डालो
इसमें अल्लाह की ही मर्जी थी
कौन बोला इसे छिपा डालो

किस के कहने पे रब की बात छिपी
क्या वजह है नहीं हदीस रची
फिर तो अपने मफाद के चलते
जैसी चाही वही हदीस गढ़ी

तुम में दम ही नहीं है जो बोलो
तुम में ताक़त नहीं की मुंह खोलो
शग्ले गुफ्तार कुंद ज़ेहन मफ्लूज
शाह ने जर दिया है गिन डालो

बाप दादा ने जो था खेल रचा
खेल वो आज भी तो जारी है
जो मुहम्मद के खुल के दुश्मन थे
उनकी औलाद तुम को प्यारी है

फिर मुस्लमान खुद को कहना ग़लत 
कुल्ले इमान खुद को कहना ग़लत 
रूहे शैतानियत तुम्हारा नसीब
अहले कुरान खुद को कहना ग़लत

आप का रस्ता मेरी राह अलग
आप की चाह मेरी चाह अलग
आप से अब कलाम क्या करना
मिलना जुलना सलाम क्या करना













APNE BARE ME

शायरी मेरे बस का रोग नहीं
हिकमते नगमा साजी आती है 
वैसे इस सिंफ  में भी कच्चा हूँ
थोड़ी सी बैत्बाज़ी  आती है

यूँ तो कितने ही गीत लिखते हैं
मैं सुरों के ही बोल लिखता हूँ
पहले किरदार कोई रचता हूँ
लफ्ज उसके  बकौल  लिखता हूँ
मुझसे उम्मीद ज्यादा मत रखियो 
सिर्फ बंदा नवाज़ी आती है

मुझमे शोखी है न तबस्सुम है
कड़वा सुच ही बयान करता हूँ
लोग जिस बात तो भुलाते हैं
मैं वही बार बार रचता हूँ
मेरा नगमा अगर सुरीला लगे
साज़ वालों की चालबाजी है

सोंचता हूँ या जो समझता हूँ
कैफिअत वो बयान करता हूँ
इस तरह छंद बंद में रहकर
जीता रहता हूँ और मरता हूँ
जब कलेजा सुकून पता है
मै समझता हूँ रब भी राज़ी है

नगमा साजी भी कोई खेल नहीं
बेतुके लफ्ज़ का ये मेल नहीं
इसमें पूरा दिमाग खपता है
नाज़ुके सिंफ है रखैल नहीं
रिश्ता खुद ही बनाना पड़ता है
सिफे मुल्ला है न तो काजी है
शायरी मेरे बस का रोग नहीं
हिकमते नगमा साजी आती है